बाज़ार को सिर्फ़ खरीद-बिक्री के केन्द्र के रूप में देखा जाय यह जरूरी नहीं। बाज़ार एक प्रकार का अवसर है जिसके अन्तर्गत खरीद-बिक्री है। यह वस्तुओं के विनिमय का आधुनिक रूप है।
कुछ दिनों पहले एक रिपोर्ट पढने को मिला कि भारत के युवा लेखक (हिन्दी) बाज़ारोन्मुख नहीं। दूसरे शब्दों में पश्चिम के बाज़ारवादी लेखन से अलग वे बाज़ार के लिये नहीं लिखते। यह प्रचार भ्रामक हो सकता है। यह एक ऐसी मानसिकता को जन्म देता है जहां मांग-आपूर्ति के स्वाभाविक सिद्धांत का उल्लंघन ही नहीं होता वरन जिससे एक किस्म की अराजकता भी उत्पन्न होती है।
लेखन का मूल और अंतिम उद्देश्य क्रय-विक्रय नहीं, यह सच है। लेकिन क्रय-विक्रय के केन्द्र में जो मांग-आपूर्ति, गुणवत्ता, उपयोगिता और स्पर्धा जैसे साकारात्मक तत्त्व हैं उनपर विचार करना आवश्यक है। स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन एक अलग किस्म का लेखन है और उसकी उपयोगिता सिद्ध होने के लिये एक लेखक को संत होने की प्रक्रिया से गुजरना और संत होने की शर्त भी शामिल है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिये। हर स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन उच्च कोटि का लेखन हो ऐसा जरूरी नहीं और हर उच्च कोटि का लेखन स्वांत: सुखाय हो ऐसा भी जरूरी नहीं। एक उच्च कोटि के लेखन का क्या मापदंड होना चाहिये वह विचारणीय है। किसी भी प्रकार के लेखन के लिये आवश्यक तत्त्व है उसका उपयोगी होना – व्यक्ति, समाज, देश और काल के लिये। अगर कोई वस्तु उपयोगी है तो हम उसका मूल्य भी देने के लिये तैयार होते है। इसलिये एक अच्छे लेखन के लिये उसका बाज़ार में बिक पाना एक सहज ही मापदंड हो जाता है।
आज अगर हम हिंदी समाज में हो रहे लेखन की मात्रा पर गौर करे तो वह आशातीत लगती है। यह एक साकारात्मक रूख है। लेकिन उसके बाज़ार पर ध्यान दें तो स्थिति अगर दयनीय नहीं भी तो बहुत अच्छी भी नहीं। और अगर एक स्वतंत्र हिंदी लेखक की आर्थिक दशा पर गौर करें तो स्थिति और भी साफ हो जायेगी। आज का अधिकांश हिंदी लेखक दोहरी जीवनवृत्ति अपनाने के लिये बाध्य है। और इसके कारण भी हैं। लेकिन ऐसा होने के कारण लेखक अपने और अपने लेखन के साथ पूरा न्याय न कर सकने के कारण वह स्वयं वह सब नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिये और भाषा-साहित्य-समाज को वह सब नहीं मिल पाता जो उसे मिल सकता था। यही नहीं यह कई किस्म की कुरीतियों को भी जन्म देता है – वैचारिक गुटबंदियां, सरकारी पदों-अनुदानों और पुरस्कारों की होड आदि जिसका खामियाजा न सिर्फ़ साहित्य बल्कि पाठकों और समाज को भी भरना पडता है।
अक्सर यह सुनने को मिलता है कि हिंदी साहित्य का बाज़ार बहुत बडा नहीं है। यह सच है। लेकिन यह जानना जरूरी है कि अगर भारत में अंग्रेजी साहित्य का बाज़ार हिंदी साहित्य से बडा है तो उसके कारण क्या हैं । बात फिर भारत के मध्यवर्ग पर आकर ठहरती है। पिछली सदी से मध्यवर्ग दो टुकडों में बंट या खिंच गया है। उच्च मध्यवर्ग ने उच्च वर्ग की तरह ही साहित्य और समाज से अपने सरोकारों को खत्म कर लिया। निम्न मध्यवर्ग जिसका सरोकार आज भी साहित्य और समाज से ज्यादा है अपने दैनंदिन की उहापोह और समाज के बदले तेवर के बीच आधु्निकता, प्रगतिशीलता और संस्कारों के तिराहे पर किंकर्त्तव्यविमूढ की तरह खडा नज़र आ रहा है। ऐसे में साहित्य की उपयोगिता ही संदिग्ध है तो इसके बाज़ार के अस्तित्व का खतरे में पड जाना स्वाभाविक ही है। तो क्या यह मान लेना चाहिये कि अब कुछ भी नहीं हो सकता ?
आज हम चुनौतियों के बीच जी रहे हैं और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हर सभ्यता-साहित्य-संस्कृति के इतिहास में ऐसी परिस्थितियां आती रही हैं । जिन्होंने इनका न सिर्फ़ सामना किया बल्कि इनसे सीखते हुए अपना मार्ग निर्धारित और प्रशस्त किया वे दृढ से दृढतर होते चले गये।
लेखन के उद्देश्य निर्धारित होने चाहिये। समय और समाज के बदलते तेवर के साथ सामंजस्य स्थापित होना चाहिये। लेखन की मात्रा और गुणवत्ता के बीच संतुलन होना चाहिये। लेखकों को लेखन का प्रशिक्षण लेना चाहिये। अभिव्यक्ति के अन्य लोकप्रिय माध्यमों (मीडिया, फ़िल्म, टीवी आदि) के साथ मिलकर एक दूसरे को और उपयोगी और उन्नत होने में मदद करनी चाहिये।
मन में यह विश्वास होना चाहिये कि अगर आज भी सूर, तुलसी, मीरा, प्रेमचंद, प्रसाद, हरिवंश, इन सभी महनीय कलमकारों की पुस्तकें बाज़ार में बिकती है, उनकी मांगे हैं तो आज का हिंदी लेखक भी अपने प्रयासों के बल पर आज की पीढी ही नहीं बल्कि आने वाली अनेकानेक पीढियों के बीच अपने लेखन की मांग को न सिर्फ़ बनायेगा बल्कि कायम भी रख पायेगा। इसके लिये हर किसी को बना बनाया रास्ता चुनना नहीं बल्कि स्वयं बनाना और उस पर बढना होगा।