सृजन प्रकृति का स्वभाव है सनातनता इसकी वृत्ति। अनंत काल से नित्य विस्मयकारी नूतन सृजन मनुष्य को एक नई मंथन की ओर ले जाता है। सृजनकार अपने सृजन के पालन पोषण जीवन की सततता को बनाए रखने हेतु आवश्यक अवयवों की व्यवस्था भी करता है। प्रकृति ने भी पंचमहाभूतों के रूप में ऐसी समुचित व्यवस्था की है। सभी तत्वों की अपनी महत्ता है परंतु जल सभी तत्वों का आधार सूत्र है। जीवन के शुरुआत भी इसी तथ्य से हुई हैं। समय के साथ जीवन अनेक रूपों में, जीवो को परिलक्षित हुआ परंतु जल की महत्ता समान रूप से सभी में बनी रही। जीवन की उत्पत्ति और क्षय जल पर निर्भर है। प्रकृति की पंचमहाभूत अपने आप में चमत्कार है। इनमें जल तत्व श्रेष्ठतम भूमिका में है जो अन्य सभी तत्वों को गूंथ कर प्राणमय करता है। जीवन की उत्पत्ति हेतु जल ही सूत्र वे माध्यम के रूप में सामने आया है।जीवन के सृजनहार के रूप में सभी जीवो के भरण-पोषण के कल्पना जल के बिना संभव नहीं है।
जल: जीवन का सूत्र
प्रकृति ने निरंतर सहायता के साथ प्रवाहवान बने रहने हेतु जल को आधार के रूप में रखा है। जल के भारतवर्ष के गौरवमयी संस्कारों में मुख्य तीन सूत्र है- पहला जीवंतता, दूसरा जीवन के सृजनहार के रूप में और तीसरे जीवन को प्रवाहवान बनाए रखने के रूप में। नीर-नारी-नदी भी इसी सूत्र को अपने में समेटे हैं।
प्रत्येक तत्व के कुछ गुण व धर्म होते हैं। जिस तत्व में जो गुणधर्म होगा वही वह अन्य तत्वों में विकसित कर सकता है। क्योंकि जल स्वयं जीवंत तत्व है इसलिए जब मिट्टी पर पड़ता है तो जीव जंतु पादप आदि के जीवन का आधार बनता है। जल स्वयं जीवंत तत्व है इस को सहजता से जा जांचा जा सकता है। हम किसी एक ही स्रोत से लिए गए जल को दो हिस्सों में बांटकर अलग अलग बर्तनों में डालकर अलग-अलग जगह रखें। प्रतिदिन पहले जल को सकारात्मक बातें कहीं जैसे कि जल तुम जीवन हो तुम सब का आधार हो सभी की खुशियों का आधार तुम हो आधी दूसरी जल के पास जाकर नकारात्मक बातें कहो कि जल तुम बहुत दुष्ट हो तुम बाढ़ का कारण हो अनेक लोगों पर मृत्यु तुम्हारी वजह से डूबकर हो जाती हैं आदि। गहनता के साथ जल की हलचल को महसूस कीजिए। आप पाएंगे कि जिस जल से सकारात्मक बातें की गई है उसकी सुगंध अभी भी बरकरार है और जिस जल की बुराई की गई उसमें से दुर्गंध आने लगी है। जल भी सकुचाता है, महसूस करता है और दूसरों के व्यवहार से प्रभावित होता है। शायद यही कारण है कि गंगा जी इतना मैला होने के बावजूद भी केवल मानवीय श्रद्धा के चलते अपने अंतिम क्षण तक अपनी सुगंध का को बचाए रखने का प्रयास करती हैं। और वहीं अनेक नदियों में तालाब मानवीय उपेक्षा और नकारात्मक व्यवहार के चलते जल्द ही दुर्गति को प्राप्त होते हैं। उन पर कम कूड़ा भी ज्यादा प्रभाव डालता है क्योंकि हमारे हावभाव नकारात्मकता को बढ़ाते हैं यही जल की जीवंतता को समझने के लिए काफी है।
जल से संपूर्ण जीव जगत के जीवन की सहजता है परंतु मनुष्य के लालच व अधिक की प्रकृति ने जल की शोषण व अतिक्रमण की और उसे धकेला है। मनुष्य जन्म श्रमिक का रूप में है। मनुष्य श्रम कर सम्मान प्राप्त करता है। प्रकृति ने उसे ऐसा ही बनाया है परंतु आज मनुष्य बिना श्रम सम्मान ज्यादा है। शायद ऐसे ही लोगों को बेशर्म कहते हैं और बेशर्म स्थिति का यही नतीजा है कि उसने जल सरंक्षण आए जैसे तालाब पोखर झील आदि बनाना तो बंद कर दिया और मशीनों से इसका शोषण शुरू किया जो आज जल के संकट का मुख्य कारण है।
सामान्य परिस्थितियों में मनुष्य जल प्रवाह जैसे पईन नदी आदि से अपने जल की पूर्ति करता है। जहां नदियां व अन्य प्रवाहमान जल उपलब्ध न हो वहां वह अपने द्वारा संग्रहित जल जैसे तालाब, बावड़ी आदि से जल प्राप्त करता है यदि स्थिति गंभीर हो और जल प्राप्ति का कोई अन्य उपाय ना हो तब जीवन चलाने हेतु भूगर्भीय जल का प्रयोग हमें करना चाहिए। परंतु पातालतोड़ सबमर्सिबल जिसमें बिल्कुल भी दया नहीं है इसका प्रयोग सर्वथा वर्जित है परंतु आज का बेशर्म मनुष्य जीवन की सामान्य परिस्थितियों में भी सिर्फ एक खटका दबाकर मोटर चला कर सबमर्सीबल का प्रयोग इस प्रकार करता है कि जैसे वह जल का मालिक है और वह जब चाहे जितना जल बना सकता है और यह जल भंडार कभी खत्म नहीं होगा। मनुष्य की यह सोच व व्यवहार की वह जल का मालिक है उसकी अज्ञानता का पहला संकेत है क्योंकि जल ने मनुष्य को बनाया है ना कि मनुष्य ने जल को। दूसरा उसका बिना श्रम का व्यवहार जिसमें जल संग्रह की प्रवृत्ति खत्म होना और जल शोषण का व्यवहार बढ़ना उसको रसातल की ओर ले जा रहा है। जिसमें मानवीय पलायन संघर्ष व हिंसा बढ़ी है। तीसरा जल के प्रति सम्मान व श संस्कार की कमी ने उसका रूखापन बढ़ाया है। उसकी आंखो का पानी सूख गया है और ऐसी स्थिति में उसका व्यवहार अमानवीय हुआ है। जिससे जल संकट और गहराया है। चौथा जल के बाजारीकरण के चलने लोगों के लालच को और बढ़ाया बल्कि शोषण की प्रवृत्ति को पोषित किया। पांचवा मनुष्य ने अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूरी बना ली। इसके परिणामस्वरूप उसकी जल व जल विज्ञान से दूरी बढ़ी। छठा राज और समाज दोनों ने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभाया। दोनों ने ही अंग्रेजों द्वारा दिए गए व्यापारिक संस्कारों को ही बढ़ावा जिसमें हर तत्व रिश्ते संबंधी व्यवहार में अपने व्यापारिक संस्कारों को ही बढ़ाया जिसमें हर तत्व रिश्ते संबंधी व्यवहार में अपने व्यापार ही खोजा और सिर्फ शोषण की वृत्ति को ही पोषित किया। आज की यह परिस्थितियां हमें गंभीर जल संकट की ओर ले गई है और यदि अभी भी हम नहीं चेते तो यह संकट अभी और बढ़ेगा और फिर शायद हम उस स्थिति की और न लौट सकें जहां से सभी सामान्य किया जा सके।
आज हमारे व्यवहार ने हमें उस स्थान पर खड़ा कर दिया है जहां हम अपने पालनहार के पालनहार की भूमिका में हैं। और यह भूमिका तभी संभव है जब हम सेवक के रूप में स्वयं को पुनर्स्थापित करें। सेवक जैसे विवेकी में श्रद्धावान बने। जीवन को श्रमपूर्ण बनाएं। अपरिग्रह में न्यूनतम आवश्यकताओं से जीवन चलाएं जितना बोए, संग्रह करें, उतना कांटे। सभी का हिस्सा सबको दे दूसरों से लेने के बजाय देने की प्रवृत्ति, जो कि हम सर्वश्रेष्ठ जीव बनाती है को पोषित करें। हमारे यही व्यवहार का परिवर्तन इस जगत में परिवर्तन का सूत्र हैं।
लेने वाले से देने वाले की भूमिका में आना मनुष्य की श्रेष्ठता अपनी क्षमताओं के साथ न्याय व शिक्षित होने का प्रमाण है। जिसे आज हम भूल रहे हैं। इसलिए जीव जगत के हर एक घटक को प्रकृति के हर एक रूप को जब तक हम लेने की वजह देना नहीं सीखेंगे तब तक हम इन संकटों से उबर ना सकेंगे और जिस दिन हमारे व्यवहार में यह परिवर्तन होगा वह पुनः विश्व गुरु के रूप में पुनर्स्थापित करेगा और हमें श्रेष्ठतम प्राणी कहलाने का अधिकार भी दिलाएगा। उस दिन प्रकृति के सभी पंचमहाभूत जिन्होंने हमें जीवन दिया हम पर गर्व कर सकेंगे और जब प्रकृति आशीर्वाद देती है फिर कुछ बचता नहीं इसी को परमात्मा का साक्षात्कार कहते हैं और भारतवर्ष के लोगों में अभी ऐसे संस्कार के बीच बाकी है जिन्हें पुनः अंकुरित होना है।
जगदीश चौधरी
अध्यक्ष ग्रीन इंडिया फाउंडेशन ट्रस्ट फरीदाबाद
सदस्य विश्व जल परिषद फ्रांस
Leave a comment
Leave a comment