वर्त
मान समय में हिन्दी भाषा को और व्यापक रूप देने के लिए जो संघर्ष चल रहा है उससे सभी भली-भांति परिचित हैं। क्या आप
को लगता है कि पत्रकारिता जगत में भी हिन्दी भाषा का जो प्रयोग हो रहा है वह सही प्रकार से नहीं हो रहा है? इसमें भी कहीं कुछ त्रुटियां या अशुद्धियां व्याप्त है, क्या हिन्दी भाषा के वर्तमान प्रयोग की स्थितिपूरी तरह से उचित और अर्थ पूर्ण है?
वर्तमान में जो
मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता जा रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता स्तर है। हर व्यक्ति अपने को अंग्रेजी भाषा बोलने में गौरवान्वित महसूस करता है। इसके उत्थान के लिए सबसे पहले हमें ही शुरूआत करनी होगी क्योकि जब हम शुरूआत करेंगे तभी दूसरा हमारा अनुसरण करेगा।
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डा. फादर कामिल बुल्के का है, जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश में देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनों-दिन दुर्गति होती जा रही है। या यूं कह लें कि आज के समय में मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है तो गलत नहीं होगा। टीवी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे धकेलना शुरू कर दिया और वहां प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी की जैसे नीम के पेड़ पर करेला चढ़ गया हो। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होता चला गया। मैं ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रित है।
हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्रता पूर्व से ही चली आ रही है और आजादी के आंदोलन में इसका बहुत बड़ा योगदान भी रहा है, लेकिन आज जो मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता दिखाई दे रहा है, वह पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण हो रहा है। आज मीडिया ही नहीं बल्कि हर जगह लोग अंग्रेजी के प्रयोग को अपना भाषाई प्रतीक बनाते जा रहे हैं। इसके लिए सभी को एकजुट होकर हिन्दी भाषा को प्रयोग में लाना होगा।
अगर आज आप किसी को बोलते है कि यंत्र तो शायद उसे समझ न आए लेकिन मशीन, शब्द हर किसी की समझ में आएगा। इसी प्रकार आज अंग्रेजी के कुछ शब्द प्रचलन में हैं, जो सबके समझ में है। इसलिए यह कहना कि पूर्णतया हिन्दी पत्रकारिता में सिर्फ हिन्दी भाषा का प्रयोग ही हो यह तर्क संगत नहीं है। हां, यह जरूर है कि हमें अपनी मातृभाषा का सम्मान अवश्य करना चाहिए और उसे अधिक से अधिक प्रयोग में लाने का प्रयास करना चाहिए।
हिन्दी दिवस मतलब चर्चा-विमर्श, बयानबाजी, मानक हिन्दी बनाम चलताऊ हिन्दी। हिन्दी के ठेकेदार और पैरोकार की लफ्फाजी। बस करो यार! भाषा को बांधो मत, भाषा जब तक बोली से जुड़ी है, सुहागन है। जुदा होते ही वह विधवा के साथ-साथ बांझ बन जाती है। वह शब्दों को जन्म नहीं दे पाती। बंगाली, मराठी, गुजराती, उर्दू, फारसी, फ्रेंच, इटालियन कहीं से भी हिन्दी से मेल खाते शब्द मिले, उसे उठा लो। बरसाती नदी की तरह। सबको समेटते हुए। तभी तो हिन्दी समंदर बन पाएगी। रोक लगाओगे तो नाला, नहर या बहुत ज्यादा तो डैम बन कर अपनी ही जमीं को ऊसर करेगी। कॉर्पोरेट मीडिया तो इस ओर ध्यान दे नहीं रहा। हां, लोकल मीडिया का योगदान सराहनीय जरूर है। अरे हां, ब्लॉगरों की जमात को भी इसके लिए धन्यवाद।
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जो हिन्दी के ऊपर उंगली उठाकर हिन्दी का अपमान करते रहते हैं। बात करें पत्रकारिता की तो हिन्दी पत्रकारिता में आजकल हिन्दी और इंग्लिश का मिला जुला रूप प्रयोग किया जा रहा है जो कि हमारे हिसाब से सही नहीं है। मैं आपको बता दूं कि हिन्दी के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल न करने से वह धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं जो हमारे लिए शर्म का विषय है। मैं अपने हिन्दी-भाषियों से निवेदन करता हूं कि हिन्दी को व्यापक रूप देने में सहयोग करें और हिन्दी को गर्व से अपनी राष्ट्रभाषा का दर्जा दीजिये।
भाषाई लोकतंत्र का ही तकाजा है कि नित-नए प्रयोग हों। हां, पर वर्तनी आदि की गलतियां बिल्कुल अक्षम्य है। त्रुटियां-अशुद्धियां तो हैं ही। उचित और अर्थपूर्ण तो जाहिर है कि नहीं है। लेकिन यह सवाल इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है भाषा के अर्थशास्त्र का सवाल। हिन्दी दिवस पर इस बारे में बात होनी चाहिए।
पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग अपनी सहूलियत के हिसाब से होता रहा है। यह जो स्थिति है उसका एक कारण हिंदी के एक मानक फान्ट का ना होना भी है। ज्यादातर काम कृति फान्ट में होता है लेकिन जगह-जगह उसके भी अंक बदल जाते है। अब पत्रकारिता में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति एक संस्थान से दूसरे संस्थान में जाते समय फान्ट की समस्या से रूबरू होता है। इसलिए यहां हिंदी का प्रयोग सहूलियत के अनुसार हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ दिनों में यूनिकोड के आने से कुछ स्थिरता जरूर आई है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हम अभी भी यही मानते हैं कि अंग्रेजी हिंदी से बेहतर है। इसलिए जान- बूझकर हिंदी को हिंगलिश बना कर काम करना पसंद करते हैं और ऐसा मानते हैं कि अगर मुझे अंग्रेजी नहीं आती तो मेरी तरक्की की राह दोगुनी मुश्किल है। पत्रकारिता भी आम समाज से अलग नहीं है, उसने भी अन्य बोलियों के साथ-साथ विदेशी भाषा के शब्दों को अपना लिया है।