8 जनवरी को जब मोहम्मद हारुन अपने घर से रिक्शा लेकर निकले तो सड़कें सूनी दिखीं और पता लगा कि सरकार ने वीकेंड लॉकडाउन लगाया है। कुछ घंटे इंतजार करने के बाद वो पूर्वी दिल्ली में पड़ने वाली दल्लूपुरा की अपनी मजदूर बस्ती में लौट आए। चार साल पहले हारुन बिहार के अररिया से 1300 किलोमीटर दूर राजधानी दिल्ली चार पैसे कमाने के लिए आए और अब वो रिक्शा चलाकर 300-400 रुपये दिहाड़ी बना पाते हैं। इसी में उन्हें अपना परिवार चलाना होता है, घर पैसे भी भेजने होते हैं और कर्ज भी चुकाना होता है। हारुन पर उनके मकान मालिक का ही 20,000 रुपये का कर्ज है, ये कर्ज पहली और दूसरी लहर में लगे लॉकडाउन के दौर वाले किराए का ही है। हारुन अपने बच्चों के साथ जिस माचिसनुमा कमरे में रहते हैं उसका 3000 रुपये किराया है।
वीकेंड लॉकडाउन ने दिलाई पहली-दूसरी लहर की याद
कोरोना की पहली और दूसरी लहर के लॉकडाउन के दौरान जो सूनी सड़कें, खाली बाजार, गलियों में सन्नाटा दिखा करता था, अब देश की राजधानी दिल्ली में फिर से वही नजारा दिखने लगा है। ये तीसरी लहर का पहला वीकेंड लॉकडाउन है और जरूरी सेवाओं के अलावा राजधानी में सब कुछ तालाबंद है। इस लॉकडाउन में सबसे ज्यादा अगर कोई डरा हुआ है तो वो हैं बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से आकर राजधानी में काम करने वाले प्रवासी मजदूर। रिक्शा चलाने वाले मोहम्मद हारुन से लेकर फेरी लगाने वाले लक्ष्मीनारायण और उनके साथी मजदूर लॉकडाउन की आहट सुनकर डर गए हैं। हमने दिल्ली NCR की कुछ मजदूर बस्तियों और लेबर चौक जाकर प्रवासी मजदूरों से बात की है।
‘अगर लॉकडाउन और सख्ती बढ़ेगी तो पहले ही अपने गांव लौट जाऊंगा’
बिहार के मधुबनी के रहने वाले लक्ष्मीनारायण पूर्वी दिल्ली की मजदूर बस्ती में रहते हैं और कॉस्मेटिक सामानों की फेरी लगाते हैं। लक्ष्मीनारायण अपनी बस्ती से निकलकर मेन रोड पर ये देखने के लिए आए हैं कि वीकेंड लॉकडाउन का क्या हालचाल है। वो कहते हैं कि ‘कॉस्मेटिक की फेरी में ज्यादा बिक्री शनिवार, रविवार को ही हुआ करती थी, लेकिन अब वीकेंड लॉकडाउन की वजह से धंधा ठप हो गया है। अगर फेरी लगाने निकलूंगा तो हजारों रुपये का फाइन देना होगा। अगर कोरोना के केस और ज्यादा तेजी से बढ़ेंगे और लॉकडाउन लगेगा तो फिर से गांव जाना होगा। जब पहली बार कोरोना आया था और लॉकडाउन लगा था तो हालत खराब हो गई थी। इस बार अगर लॉकडाउन लगने की संभावना बनेगी तो पहले ही घर निकल जाऊंगा।’
‘हमें कोरोना वायरस का डर नहीं, हमें लॉकडाउन का ज्यादा डर है’
बरेली यूपी के रहने वाले मोहम्मद आरिफ पूर्वी दिल्ली में कारपेंटर का काम करते हैं और दिन का दिन का 300 रुपये कमाते हैं। आरिफ पहली और दूसरी लहर वाले लॉकडाउन को याद करते ही सिहर उठते हैं, उन्हें फिक्र हैं कि कहीं कोरोना के केस इसी तरह बढ़ते रहे तो लॉकडाउन ना लग जाए। आरिफ कहते हैं- ‘अमीर लोग कोरोना के बारे में सुनते ही अपने घरों में बंद हो जाते हैं। हम रोज कमाने और रोज खाने वाले लोग हैं। अब हमें कोरोना का डर नहीं रहा, अब हमें अपनी रोजी-रोटी छीनने का डर है’।
आरिफ बताते हैं कि पिछले एक हफ्ते से ग्राहकी कम हो गई है और काम धंधा भी मंदा पड़ गया है। अभी तक हम पहले लॉकडाउन के भयानक मंजर को नहीं भूले हैं। कई दिन तक अपने कमरों में बंद रहे, कभी खाना मिला कभी भूखे सो गए। सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर जाना पड़ा। जब कमाई भी नहीं हुई तो मकान मालिक को हजारों रुपये किराया चुकाना पड़ा। इस बार ऐसी नौबत नहीं आने देंगे, पहले ही घर चले जाएंगे।
‘जेब में सिर्फ 10 रुपये पड़े हैं, मास्क खरीदूं या खाना खाऊं?’
वीकेंड लॉकडाउन के एक दिन पहले हमने हमने दिल्ली और आसपास के इलाकों के लेबर मार्केट का भी दौरा किया और वहां खड़े प्रवासी मजदूरों का हाल-चाल लिया। दिल्ली से सटे नोएडा के सेक्टर 58 लेबर मार्केट में भी सुबह-सुबह काम की तलाश में मजदूरों की भीड़ लगी रहती है। मजदूरों ने बताया कि पिछले करीब एक हफ्ते से काम मिलना कम हो गया है। कोविड संक्रमण के डर की वजह से लोगों ने अभी अपने छोटे-मोटे काम को टालना शुरू कर दिया है, इसलिए काम मिलने में दिक्कत आ रही है।
कासगंज के रहने वाले गोविंद दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। जब हम लेबर चौक पहुंचे तो वो हमारा माइक देखकर करीब आ गए। कहने लगे कि लगातार एक हफ्ते से इसी लेबर चौक पर आ रहे हैं और काम नहीं मिल रहा। भावुक होकर वो अपनी जेब से 10 रुपये का सिक्का निकालते हैं और कहते हैं कि ‘मेरे पास अब यही 10 रुपये का सिक्का बचा है। चाहे तो मेरे जेब चेक कर लीजिए।’