सुन्दर दिखना और सुन्दर होना दो अलग अलग बाते है। दैहिक सुन्दरता केवल पशु को शोभा देती है वही मनुष्य में मनो- दैहिक। वर्तमान परिपेक्ष्य शिक्षा का एक विकृत रूप प्रचलन में है जो हमे आवरण मात्र की सुन्दरता को सम्पूर्णता का आभास देता है और यही खालीपन दीक्षांत में शान्ति की बजाय अशांति, विनय की अपेक्षा अहंकार और सहजता के स्थान पर तनाव का कारण बनता है। आज की शिक्षा से सिर्फ अशांति, अहंकार और तनाव ही प्राप्त है। इन परिस्थितियों में भी जो भारतीय शिक्षा व्यवस्था को साधे हुए है वो है भारतीय संस्कृति व संस्कार।आज भी भारतीय समाज में अनेको ऐसी वैज्ञानिक पद्धतियाँ आम जीवन शैली में है जो सहजता और आत्मविश्वास मनुष्य में बनाए रखते है। जिसमे हम विषम परिस्थितियों में भी स्वयं को संतुलित बनाए रखता है। जीवन पद्धति, सामूहिक परिवार व्यवस्था , त्यौहार, सामाजिक संरचनाए इत्यादि मानवीय चेतना में इतना गहरा बैठी है कि वे मनुष्य को एक मजबूत आधार देती है और असहज क्षण में भी सहज बनाए रहती है।
क्योंकि अनौपचारिक शिक्षा से मानव जीवन की शुरुआत व संस्कार आते है जो उसके भविष्य के व्यव्हार का आधार बनते है। परिवार का स्वरुप व व्यवस्था, जीवन शैली,आपसी सम्बन्ध, उसके मन व व्यव्हार को निर्धारित करते है। इसलिए भारत की सामूहिक परिवार व्यवस्था अनेक मायनों में अनौपचारिक शिक्षा का विश्व में श्रेष्ठम स्वरुप है। बालक को भाषा, अनेकों कौशल व कलाएं, सामूहिकता हम का भाव सामाजिक जिम्मेदारी उठाने की क्षमता, आशावाद, आत्मविश्वास जैसे गुण स्वाभाविक तरीके से विकसित होते है और अच्छे कल्याणकारी व्यक्ति की नीव रखता है। जबकि अक्सर एकल परिवार इसमें पिछड़ जाते है। आजकल बढ़ते एकल परिवारों ने “हम ” से “मैं” की ओर ले जाने में भूमिका निभाई है।
औपचारिक जोकि स्थान विशेष पर निर्धारित अध्यापकों द्वारा निश्चित पाठ्यक्रम को समयानुसार पुरा कर अपनी शैली से मूल्यांकन कर पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार की शिक्षा में अध्यापक व उसका वातावरण प्रधान होता है। परिवार की भूमिका इस दौरान आंशिक या नाममात्र ही होता है। भारत की गुरुकुल व्यवस्था या ब्रह्मचर्यकाल औपचारिक शिक्षा का हिस्सा था जिसमे गुरु अपना पाठ्यक्रम निर्धारित कर जिम्मेदारी देते और इस कालखंड में गुरु का अनुदेशन सभी के लिए आदेश होता। ब्रिटिश शिक्षा पद्धति आज अध्यापक न पाठ्यक्रम निर्धारित करता है और न ही शिक्षण, अनुशासन विद्याथियों की भूमिका का मूल्यांकन।
परिणामस्वरूप शिक्षा उन लोगो की शिक्षा में परिवार का हस्तक्षेप ज्यादा बढा और अध्यापक का स्थान हासिये पर आ गया जिससे वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने ऐसा पतन देखा जिसमे शिक्षा के मूल उद्देश्य कही खो गए है। अब शिक्षा रोजगार का साधन है मनुष्य बनाने का नहीं। परिणामस्वरूप आज की तथाकथिक अनौपचारिक शिक्षा केवल औपचारिक बनकर रह गई है और मनुष्य पशु का पशु इसमें सामाजिकता “हम ” का कोई स्थान नहीं है, सिर्फ “मैं ” हावी है।
निरोपचारिक शिक्षा उन लोगो की शिक्षा हेतु व्यवस्था है – जो की किसी अपरिहार्य कारणों से नियत समय पर अपनी औपचारिक शिक्षा प्राप्त न कर सके और अपनी समाजिक व आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए शिक्षा प्राप्त करते है। अतीत में शायद ही कर्ण या एकलव्य जैसे कोई उदहारण हो जो इस पर ठीक बैठे क्योंकि भारत में औपचारिक शिक्षा से कोई वंचिक न था। स्वयं मैकाले भी भारत की सौ प्रतिशत साक्षरता को मनता है और साथ ही इसकी गुणवत्ता को भी जो भारतीयों में उच्च चरित्र व आदर्श स्थापित करती थी। परन्तु अंग्रेजो ने न गुरुकुल बन्द किया बल्कि भारतीय शिक्षा पद्धति को ख़त्म करने हेतु सभी प्रयास किये।
जिसके परिणामसवरूप शिक्षा को भी उन्होंने जनकल्याण से व्यापार में बदल दिया और अधिकतम लोगो रख स्वामी से दास में बदला। निरोपचारिक शिक्षा,जोदूरस्थ शिक्षा के रूप में, समय के साथ भारत में अंग्रेजियत बढ़ने के साथ और बढ़ी है। मनुष्य के सामाजिक प्राणी है और शिक्षा का उद्देश्य इस समाज की व्यस्था को और बेहतर बनाने हेतु समाज की जरूरतों को समझ उन्हें पूरा करना है। शिक्षा समाज का आधार है उसकी सतत्ता व गुणवत्ता बनाए रखना इसका लक्ष्य है। समाज और शिक्षा एक दूसरे के पूरक है परन्तु वर्त्तमान परिपेक्ष्य में दोनों में दूरी बढ़ी है। दोनों के संबंध में स्वार्थ “मैं “के चरम पर पहुंच चुका है। इसीलिए शायद वही सामजिक मनुष्य बचा रह जाता है जो इस तथाकथिक शिक्षा व्यवस्था से दूर रहता है या बच जाता है। आज की शिक्षा के लक्ष्य व्यापार पर आधारित स्वार्थ की पूर्ति हेतु है। राज्य के शिक्षण संस्थान हो या फिर सामज द्वारा चालित की अधिकतम संस्थाएँ केवल धनोपार्जन के कार्य में लगी है।
जहां मानवता व भावनाएं खत्म होती है वहां से व्यापार शुरू होता है।राजकीय विश्वविद्यालय भी अब छोटे -छोटे कामो का शुल्क भी हजारो में लेते है कि आम आदमी की पहुंच से दूर है। जब राज और समाज दोनों गलत दिशा में चल दे तो ऐसी व्यवस्था केवल पतन को प्राप्त करती है। आज भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इस गलत दिशा में दौड़ने की होड़ है। सम्प्रभूता एक ऐसी व्यवस्था व स्तिथि का गुण है जिसमे मनुष्य बिना किसी बहरी दबाव के अपने निर्णय स्वयं ले सके। आज के शिक्षण संस्थान कितनी स्वायत्ता रखते है यह किसी से छिपी नहीं है। शिक्षण संस्थान पाठ्यक्रम, समय, मूल्यांकन विधि आदि कुछ भी स्वयं निर्णय लेने की स्तिथि में नहीं है। विद्यार्थी के परिजनों का दबाव,राजनैतिक व प्रशासनिक दखलंदाजी, परीक्षाओं में अनियमितताओं आदि ने ऐसा वातावरण बनाया है, जिसमें अध्यापक, शिक्षण संस्थान कही भी मुक्त नहीं है। बाहरी दबाव में सारे निर्णय हो रहे है। इसके दुष्परिणाम सबके सामने है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 से कुछ उम्मीदें है कि जिसमें सभी शिक्षण संस्थान स्वायत्ता प्राप्त करेंगे। विश्वविद्यालयों का बंधन हटेगा। अपने -अपने गुरु की तर्ज पर शिक्षण संस्थान पर अपना पाठ्यक्रम, शिक्षण व्यवस्था,अध्यापक,विधि व मूल्यांकन पद्धति का सर्जन का सकारात्मक समाज के निर्माण की ओर लेकर जाएंगे। विद्यार्थियों के आवास की व्यवस्था शिक्षा संस्थानों में होगी तो परिवारों का हस्तक्षेप घटेगा जिससे शिक्षक मुक़्त भाव से और विद्यार्थी श्रद्धा भाव से अपनी भूमिका निभा सकेंगे। शोध कार्य स्वयं दर्शन का आधार रखेंगे जो आत्मविश्वास और सकारात्मकता का वातावरण तैयार करेंगे। जब विद्यार्थी गुरुकुल व्यवस्था में होकर गुजरेगा तो संयुक्त परिवार में विश्वास करेगा जो अंततोगत्वा संस्कार और अंकुश बढ़ायेगा जिससे गुजकर मनुष्य का व्यवहार व चरित्र कुंदन होता है।
जब अनौपचारिक व औपचारिक शिक्षा अपने स्वर्णिम सवरूप को पा सकेगी जब ज्यादा कुछ पाने को बचता नहीं। उच्च चरित्र,शांति, विनय व सहजता ऐसी व्यवस्था के नैसर्गिक गुण होते है और एक -एक व्यक्ति चाणक्य, चन्द्रगुप्त और विक्रमादित्य जैसा वयक्तित्व और भारत एक पुनः एक ऐसे राष्ट्र को जिसे कहते है “विश्वगुरु” ।
एवं विश्व जल परिषद्, फ्रांस के सदस्य हैं)